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Showing posts from April 26, 2020

संपादकीय कोविड19 पर दो बुद्धिजीवी.

Dr. Yashwant Choudhary from Facebook channel (Sikar Times) criticize Dr. Biswaroop Roy Chowdhury. सम्पादकीय:- डॉक्टर यशवंत चौधरी अपने "सीकर टाइम्स" फेशबुक चैनल पर विडिओ मे कुछ ऐसा कहते हैं. डॉ. बिश्वारूप बंगाल साइड के चौधुरी है. यशवंत राजस्थान साइड के. वे आप से रिलेट नहीं करते. अब हरियाणा और यूपी से भी शेष है. यशवंत को वे नकली चौधरी लगते है. सचेत रहने की सलाह देते है. जबकि डॉ.बिश्वारूप रॉय चौधुरी. मधुमेह विषय पर Ph.D हैं.  रक्तचाप कैंसर जीवनशैली से जुडी बिमारियों का Diet Management द्वारा 3 day step से बुखार, शूगर, आदि ठीक करते है. शरीर को चिकित्सक मानते है. डॉक्टर साहब दूसरों पर नजर या आकलन में कई बार आदमी, खुद की बड़ी गलतियों से चूक जाता है. अब ये भी चलन पडेगा. मैं हरियाणा का यादव राव साहब हूँ. बिहार उत्तरप्रदेश वाला नहीं. कल को उपजातियों में श्रेष्ठता को लेकर विषय उठेगा. . वे diabetes m में Ph.D हैं आपका विषय अलग है.आप भी Ph.D होंगे. या आपने अपना विषय का जिक्र किया है. आप Drug Bacteriology, Virology पर कुछ हैं. Scam क्या है. संदेश ??? आप

मजदूर की व्यथा

एक मई विश्व मजदूर दिवस पर. पुस्तक "जीवन एक अभिव्यक्ति" लेखक:- डॉ. महेन्द्र सिंह हंस. प्रकाशन:- राजमंगल पब्लिशर्स *मजदूर की व्यथा* दो वक्त की रोटी को, जिंदगी छोटी पड़ जाती है, सुबहा का निवाला खाकर, जब धूप निकल आती है. . दिनभर सहा कष्ट भरपूर, कष्ट और गहरा जाता है, मिलती नहीं पगार, जब भूखे ही सोना पड़ जाता है, . लाया था फटे पुराने कत्तर, चुग बीणकर, बैंया पक्षी को घोंसला बुनते देखकर, तम्बू बनाया इनको गूथकर, कंप कपाती ठण्ड से बच पांऊगा, ऐसा सोचकर, कमेटी वालों ने, इसे भी तोड़ दिया, गैर कानूनी सोचकर. . जीवन एक मजदूर का, है अति-कठिनाइयों से भरा हुआ, सेठ लोग भी ये कहते है, हम भी निकले हैं इसी दौर से, हम भी तो कभी मजदूर थे, वो पूर्वज थे आपके, जो सेठ कहलवा गये, वरन् मजदूरी कैसे होती है. मालूम नहीं आज आपको, . पूरे दिन साहब साहब मजदूर करे, देते नहीं फूटी कौडी पास से, रोते बिलखते होंगे बच्चे उनके भी, फिर भी दिल विनम्र होता नहीं. . दो वक्त की रोटी को, जिंदगी छोटी पड़ जाती है, सुबहा का निवाला खाकर, जब धूप निकल आती है. (अर्थात सूर्योदय से पहले उठकर म

सिक्के व्यवहारिक होते है (लेख)

भले सिक्के जिंदगी में व्यवहारिक होते हैं, वे भी केवल मनुष्यों में, परिवार/समाज/देश/विदेश/मुद्रा पर व्यवहार चलन में है, बात तोलने की हो, बात पहलुओं की हो, बात क्षमता की हो, बात सिक्कों के खनक की हो, बात ईमान/बेईमानी की हो, बात संपदा/वैभव/राजपाट की हो, कहावत :- जिसके कमलेविच् दाने.. उसके पगले भी सियाणे. बात विचारधारा/चलन/रीत-रिवाज/धार्मिक-आधार इससे वंचित नहीं है. धार्मिक ठगी, जगजाहिर है, कर्म के आधार पर विभाजन हो, या जातिगत आधार. सबके पीछे मूलभूत आधार सिक्के ही है. प्रथा चाहे विधान/मनुस्मृति जनेऊ-क्रांति हो, जमींदार-प्रथा हो, स्त्रियों को दाँव पर लगाने की हो, या फिर ढोर यानि आधार गाय या गोपाल की लीला केंद्र हो, भेदभाव के पर्दे के पीछे आधार चंद सिक्कों के खनक की ही मिलेगी, शूद्र वर्ग के लोगों और उनकी विवाहताओं पर प्रथम अधिकार जनेऊधारी का होगा, न उन्हें संपत्ति संपदा तो दूर की बात, सार्वजनिक स्थलों पर जाने की रोक, बल्कि बहिष्कृत कर जंगलों या असुरक्षित स्थानों पर रहने को मजबूर किया गया, वैसे तो वो बलिष्ठ थे, लेकिन मानसिकता को कुचला गया, ताकि वे हीनभावना से ग्रसित

साँस बिन प्राण

सांस ही गवाह है गर जीवंत होने के आयाम ये ढेरों घूमते बेजुबान करते नहीं *प्राणायाम. . माँगते नहीं खोजते हैं, मीलों घूम घूमकर, खाते है घास फूँस, मारे गये चुन चुनकर. . कल का जिक्र इतिहास था, कल की चर्चा भविष्य भी, वर्तमान कल का किस्सा है भविष्य वर्तमान के क्षण भी.

नेता सेवक कैसे

दे न पाये जो व्यवस्था, छीन ले जो रोटियां, बोटियाँ तुम्हें मुबारक, जो हमारा है वही दे दो, . तुम्हें तमगे चाहिए ले लो, तमाशा न करो, तमाचा भी बनता है, आम जनता से मिलकर देख लो, . सेवक भेष बनाकर आये थे, काम के वक्त नदारद हो, फायदे किसमें ज्यादा है, वही फरमान सुनाते हो, . नालायकी देखकर, कार्यकर्ता इकट्ठे कर, पहले धौंस जमाते हो, पहन सफेद वस्त्र, मुर्दा हो दर्शाते हो, . सेवक होने की आड में जीवंत हो सबसे ज्यादा. समर्थन बीस का. अस्सी विरोध को, बट्टा लगाकर छाँट देते हो. . वैद्य महेन्द्र सिंह हंस

महिला और क्षमता

बोझिल हुई नार आज यो माणस हुया लाचार या नार ठाड बंधावै सै, आधे काम बाहर के ठावँ बर्तन भांडे सब चमकावे. फेर भी झाड झाड बैरी, आखिरकार अबला पावै, एक चुटकी सिंदूर मांग की, दुनिया तै लड़ जावे, बाँध कफ़न यो लाल जणै, उसै की या फेर लाज़ करे, निश दिन महनत करकै, बाबू जी सा *श्रृंगार करै, परिवार की लाज बचावण खातर, वा सावत्री बन लड जावै, फेर भी डायण कहै यो समाज, वा कतही जडामूल तै मरगी, नुखस फेर भी वा सह लेती, माणस नै लटक जाण दे दी, विधवा बैरण कतई मर गी. छूटे सब श्रृंगार आज वा, मुहर्त मह बैठन तै रहगी. शुभ कर्म करें आज तिह, कुणबे खातिर करते करते आखिर कार लाचार कहागी, वैद्य महेन्द्र सिंह हंस