मजदूर की व्यथा

एक मई विश्व मजदूर दिवस पर.
पुस्तक "जीवन एक अभिव्यक्ति"
लेखक:- डॉ. महेन्द्र सिंह हंस.
प्रकाशन:- राजमंगल पब्लिशर्स

*मजदूर की व्यथा*

दो वक्त की रोटी को,
जिंदगी छोटी पड़ जाती है,
सुबहा का निवाला खाकर,
जब धूप निकल आती है.
.
दिनभर सहा कष्ट भरपूर,
कष्ट और गहरा जाता है,
मिलती नहीं पगार,
जब भूखे ही सोना पड़ जाता है,
.
लाया था फटे पुराने कत्तर,
चुग बीणकर,
बैंया पक्षी को घोंसला बुनते देखकर,
तम्बू बनाया इनको गूथकर,
कंप कपाती ठण्ड से बच पांऊगा,
ऐसा सोचकर,
कमेटी वालों ने,
इसे भी तोड़ दिया,
गैर कानूनी सोचकर.
.
जीवन एक मजदूर का,
है अति-कठिनाइयों से भरा हुआ,
सेठ लोग भी ये कहते है,
हम भी निकले हैं इसी दौर से,
हम भी तो कभी मजदूर थे,
वो पूर्वज थे आपके,
जो सेठ कहलवा गये,
वरन् मजदूरी कैसे होती है.
मालूम नहीं आज आपको,
.
पूरे दिन साहब साहब मजदूर करे,
देते नहीं फूटी कौडी पास से,
रोते बिलखते होंगे बच्चे उनके भी,
फिर भी दिल विनम्र होता नहीं.
.
दो वक्त की रोटी को,
जिंदगी छोटी पड़ जाती है,
सुबहा का निवाला खाकर,
जब धूप निकल आती है.
(अर्थात सूर्योदय से पहले उठकर मजदूरी की तलाश में.. फिर कविता में चित्रित किया गया है. उसकी व्यथा/पीड़ा को जाने.)

Comments

  1. मजदूर पर मार्मिक चिन्तन है

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  2. मजदूर दिवस पर मार्मिक चित्रण

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