महिला और क्षमता

बोझिल हुई नार आज
यो माणस हुया लाचार
या नार ठाड बंधावै सै,
आधे काम बाहर के ठावँ
बर्तन भांडे सब चमकावे.

फेर भी झाड झाड बैरी,
आखिरकार अबला पावै,
एक चुटकी सिंदूर मांग की,
दुनिया तै लड़ जावे,
बाँध कफ़न यो लाल जणै,

उसै की या फेर लाज़ करे,
निश दिन महनत करकै,
बाबू जी सा *श्रृंगार करै,
परिवार की लाज बचावण खातर,
वा सावत्री बन लड जावै,

फेर भी डायण कहै यो समाज,
वा कतही जडामूल तै मरगी,
नुखस फेर भी वा सह लेती,
माणस नै लटक जाण दे दी,
विधवा बैरण कतई मर गी.

छूटे सब श्रृंगार आज वा,
मुहर्त मह बैठन तै रहगी.
शुभ कर्म करें आज तिह,
कुणबे खातिर करते करते
आखिर कार लाचार कहागी,

वैद्य महेन्द्र सिंह हंस

Comments

मजदूर की व्यथा

अदृश्य शक्तियां

एक सोच एक विचार एक संदेश

विरोध या समर्थन/पक्ष या विपक्ष

भिक्षु

तलाश

पत्राचार बनाम ईमेल

आत्मनिर्भर भारत योजना की आड़

परीक्षा

संपादकीय कोविड19 पर दो बुद्धिजीवी.

मजदूर की व्यथा