तलाश
दो रोटी की आश में सुकून की तलाश में दर दर भटकता रहा दो रोटी की आश में स्वाभिमान लिए मन में हुनर था हाथ में जमीर लिये साथ में दो रोटी की आश में कुछ प्रमाण-पत्र थे मेरे पास में जाति प्रभावी देश में आस्था बस्ती जहां भेष में दो रोटी की आश में कहते है कर्म से श्रेष्ठ हो, जन्म से निकृष्ट शूद्र अछूत हो, मंदिर में प्रवेश नहीं, आओ चाहे जिस भेष में, मनोबल जहाँ बढता हो, पतित से पावन हो, धोखा है वहाँ पर भी, पहचानता जो तन से नहीं पहनावे से पहचान हो. दो रोटी की आश में देखकर थकती सांस को, त्याग हुआ जो था साथ में दो गज जमीं न थी पास में आत्मनिर्भर था, लगा रहा दो रोटी की आश में, दो गज जमीं की तलाश में, महेन्द्र सिंह हंस